अग्नि विद्या
जम्बन्य विद्या
अदिति विद्या
अरबमेष विदा
नभर विद्या
असुर विद्या
अब विद्या
जन्मो विद्या
अन्नमृत्यु विद्या
अहोरात्र विद्या
बज विद्या
अपर्व विद्या
अग्नयोनीय विद्या
भारजिना विद्या
भावित विद्या
भभू-जम्ब विद्या
बाज्य विद्या
आनी विद्या
आत्मन्वी विद्या
वायुप्टोम विद्या
आम्भणी विद्या
इध्म विद्या
इन्द्र विद्या
इप कर्ज विद्या
उखासंभरण विद्या
उर्वशी विद्या
ऋत सत्य विद्या
ऋलिक विद्या
ऋषि विद्या
ऋतु विधा
कूर्म विद्या
भर विद्या
गो विद्या
गन्धर्व विद्या
गुहा विद्या
गायत्री विद्या
गोपा विद्या
गृहमेघ विद्या
गोप्टोम विद्या
गणपति विद्या
ग्रह विद्या
चयन विद्या
चमस विद्या
चित्र शिशु विद्या
छन्दो विद्या
ज्योतिष्टोम विद्या
जातवेदो विद्या
तपो विद्या
तानूनप्त्र विद्या
तिस्रो देवी विद्या
त्वष्ट्र विद्या
त्रिविक्रम विद्या
त्रिपुर विद्या
त्रयः केशिन: विद्या
प्रेताग्नि विद्या
श्रीणि ज्योतींषि विद्या
देव विद्या
देवरथ विद्या
दर्शपौर्णमास विद्या
दक्ष विद्या
दक्षिणा विद्या
द्यावापृथिवी विद्या
दैव्याहोतारो विद्या
दिक् स्वस्तिक विद्या
द्रोणकलदा विद्या
देवासुर विद्या
धर्म विद्या
नारायण विद्या
नाक विद्या
प्रजापति विद्या
परमेष्ठी विद्या
पुरुष विद्या
पर्य विद्या
पुष्कर विद्या
पित विद्या
परावर विद्या
प्रमा विद्या
प्रतिमा विद्या
प्राण विद्या
पशु विद्या
पवमान विद्या
ब्रह्म विद्या
ब्रह्मादन प्रवम्यं विद्या
ब्रह्मणस्पति विद्या
बृहस्पति विद्या
मित्रावरुण विद्या
मन विद्या
महिमा विद्या
मरुद्गण विद्या
मातरिश्वा विद्या
यज्ञ विद्या
यक्ष विद्या
यम विधा
यज्ञोपश विद्या
पद्र विद्या
रात्रि विद्या
रोदसी विद्या
रजो विद्या
राज विद्या
लोक विद्या
वाग्विथा विद्या
विश्वकर्मा विद्या
वसु विद्या
वयुन विद्या
वेन विद्या
व्योम विद्या
वषट्कार विद्या
विराज् विद्या
वराह विद्या
वाज विद्या
शुक्रसृष्टि विद्या
शिपिविष्ट विद्या
शाक्वरी विद्या
शकट विद्या
सप्तवन्तु विद्या
सलिल विद्या
साकंजप्राण विद्या
सूर्य विद्या
सूर्या विद्या
सदसद् विद्या
समुद्र विद्या
स्वधा विद्या
स्वाहा विद्या
सुपर्ण विद्या
सप्तस्वस विद्या
स्वयंभू विद्या
सोम विद्या
सरस्वती विद्या
संवत्सर विद्या
सावित्री विद्या
स्तोम विद्या
हृदय विद्या
१. यह सारा विश्व अन्तरिक्ष से व्याप्त है। .
२. यह छिद्र ही अन्तरिक्ष है।
३. यह जो बाहर आकाश है, वही तुझ मे और मुझ में हैं।
४. अग्नि अन्तरिक्ष तथा वायु के आश्रय पर है
५. जहां जहां वायु चलता है वहां वहां आकाश है।
६. वायु गतिशील है, और वायु ही पृथक् पृथक् पदार्थों को अवस्थित करता है।
७. वात का पर्यायवाची वायु शब्द है।
८. जो वायु है, वह इन्द्र है, जो इन्द्र है, वह वायु है ।
६. वायु का नाम ही जातवेदा है, जो कुछ जगत् में क्रियामय दीख रहा है, वह सब .
वायु का ही माहात्म्य है।
१०. जो यह आकाश में चलता है, वायु है।
११. वायु ही तार्य है।
१२. स्वर्ग लोक का वहन करने वाला ताओं वायु ही है ।
१३. वायु ही तीनों लोकों में व्यापक है, अतः वह पाशुत्रिवृत् है।
१४, वायु ही विश्वकर्मा है।
१५. वायु ही सब कुछ करता है।
१६. यह पवित्र करने वाला वायु है।
१७. वायु ही प्राण है।
१८. प्राणवायु भी वायु के आश्रय पर है।
१६. मन ही प्राण बनकर दक्षिण की ओर खड़ा हुआ था।
२०. तीनों लोक एक प्रकार की नगरी है, उसमें रहने से वायु का नाम पुरुष है।
२१. वायु सब देवताओं की आत्मा है।
२२. वायु ही आकाश का स्वामी है।
२३. वायु ही अन्तरिक्ष का आधार है।
२४. यह एक ही वायु पुरुष में प्राण, उदान तथा व्यान तीन प्रकार का है। अब अग्नि का स्वरूप प्रदर्शित करते हैं
२५. तेजःस्वरूप का नाम अग्नि है ।
२६. तप का नाम अग्नि है।
२७. अग्नि ही देवताओं का जठर है।
२८. अग्नि ही सब कुछ खाने योग्य बनाती है ।
२६. अग्नि ही मैयुन तथा प्रजनन का स्वामी है।
३०. यह दृश्यमान जगत् अग्नि रूप है।
३१. अग्नि ही देवतात्रों का यष्टा है।
३२. अग्नि ही देवताओं का दूत है।
३३. अग्नि ही देवताओं का दूत था।
३४. अग्नि ही गीत की प्रोषधि है। .
३५. शुद्ध अग्नि ही यश है। अब आदित्य का स्वरूप बताया जाता है जाता है
३६. ग्रादित्य चक्षु है ।
३७. ग्रादित्य ही देवलोक है।
३८.अाकाश में जो अकेला चलता है, वह प्रादित्य है जो पूर्व में उदय होता है वह आदित्य है।
३६. ग्रादित्य की असंख्य रश्मियां हैं।
४०. 'अथवा' ये सपं ही आदित्य हैं। अव सोम का स्वरूप
४१. नक्षत्रों का स्वामी चन्द्रमा सोम कहलाता है।
४२. चन्द्रमा ही सोम है।
४३. वृत्र ही सोम था।
४४. पितृलोक का नाम सोम है।
४५. रात्रि का नाम सोम है।
४६. यह वटवृक्ष भी तिरोहित रूप में सोम है ।.
४७. दही का नाम सोम है।
४८. रस का नाम सोम है।
४६. सोम "चन्द्र मा" राजा सब नक्षत्रों को प्राप्त करता है ।
५०. सोम अन्तरिक्ष देवता है।
५१. सोम प्रोषधियों का अधिराजा है। .
५२. पानी में दीखने वाला सूर्य ही वरुण है।
५३. वरुण का स्थान जल है।।
५४. रात्रि का नाम वरुण है।
५५. मित्रावरुण का प्रिय स्थान द्यावापृथिवी है ।
५६. अथवा यह पृथिवी लोक मित्र है और यह धुलोक वरुण है।
ऊपर कहे हुए कतिपय वेदवाक्यों का सङ्गति-प्रदर्शन दिखाया जाता है जिससे कि अन्य वाक्यों के सङ्गतिकरण का मार्ग प्रशस्त हो सके।
देखिये अष्टम वाक्य:-जिसका वायू सम-चारी है, उसी का शरीर बलिष्ठ है । वायु के विषम होने पर बलवान् का शरीर भी निर्बल हो जाता है।
देखो नवम वाक्य:--जिसका वायु सम है, वही 'जातानि वेदा:--अर्थात् उत्पना पदार्थों को जान सकता है । समवायु वाले को ज्ञान भी स्थिर रहता है।
इसी प्रकार देखो सत्ताईसवां वाक्य:--जिसका पित्त समचारी है वह तपसे दुर्गम को भी पार कर सकता है और दुर्जेय का भी ज्ञान कर सकता है।
___ इस प्रकार विलोम प्रक्रिया-दूतघरा द्वारा रोगी की नाडी देख कर यह बतलामा सकता है कि तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकोगे या बीच में ही अटक जागि।
इसी प्रकार उन्तीसवें वाक्य का अनुसन्धान करते हुए नाडी देखकर कहा जा सकता कि जिसकी पित्तघरा जितनी बलवती है. वह उतना ही अधिक अन्न पचा सकता है।
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प्रथमोऽध्यायः
भवन्ति चात्र
'द्वाविमौ वातौ वातः' 'पा वात वाह षजम्'। एताभ्यां वातदोषस्य मूलमात्रं निरूपितम् ॥१॥ 'सुपर्णो जातः' इत्यस्मात्–'उपद्यामुपवेतसात् ।। 'उपज्मन्नुपवेतसात्' पित्तमूलं निदर्शितम् ॥२॥ 'पित्तं' "पित्तेन' नामान्तौ' यजुषात्र प्रदर्शितौ । 'अस्थिस्रंसं परःलंसं' श्लेष्ममूलार्थमुद्धृतः ॥३॥
अभ्रजा' 'वातजा' 'शुष्म'-पदैर्दोषत्रयस्य च । ब्रह्मस्थ 'मुञ्च शीर्षक्त्या श्लेष्मवातानलान् पृथक् ।।४।। दोषस्य सप्त-धातूनां 'शतधारेति' मन्त्रतः । प्राकृता विकृता दोषा यान्ति घ्नन्ति वपुर्यतः ॥५॥ "त्रि! अश्विना'-मन्त्रे त्रिधातुपदमुच्चरन् ।
वात-पित्त-श्लेष्म-धातु-प्रशमं प्राह सायणः ॥६॥ पचासवें वाक्य का अनुसन्धान करने से मालूम होता है कि जिसकी कफ-नाडी सम, अर्थात विशुद्ध रूप से चल रही हो, उस में गम्भीरता, उदारता एवं शान्तिं आदि गुण अधिक होंगे। - ऐसे ही बावनवें वाक्य द्वारा यह माना जाता है कि जब कफ, कुपित होकर वायू के मार्ग को अवरुद्ध कर देता है, तब वह आकाश में न जाकर विषमावस्था को प्राप्त कर वमन. ग्रहणी या अग्निमान्द्य आदि को उत्पन्न करता है।
इस प्रकार सम्यक् रूप से जामा हुअा तथा दूत-धरा द्वारा प्रयोगों में लाया हा यह नाड़ीविज्ञान, वैद्य को यशस्वी, धनी एवं सफल बना सकता है।
प्रथम अध्याय का संक्षेप 'द्वाविमौ वातौ वातः' और 'प्रावात बाहि भेषजं' इन दोनों मन्त्रों द्वारा वेदों में वायु का दिग्दर्शन है ॥१॥
'सुपर्णो जातः' 'उपद्यामुप' एवं 'उपज्मन्न पवेतसे' इन मन्त्रों द्वारा पित्त का मूल स्थापन है ॥२॥
यजुर्वेद में 'पित्तम्' पद द्वितीयान्त तथा 'पित्तेन' यह तृतीयान्त पद प्रदर्शित किया गया है, 'अस्थिस्र सम्' इस मन्त्र से कफ का प्रदर्शन कराया गया है ॥३॥
' अथर्ववेद के एक ही मन्त्र में आये 'अभ्रजा 'वातजा' तथा 'शुष्म' इन पदों से क्रमशः कफ, वात और पित्त-तीनी का मूल प्रदर्शित किया है ॥४॥
शतधार इस मन्त्र के द्वारों सप्तधातुओं के निर्माण कर्ता सप्त दोषों का प्रकृतावस्था में शरीर को पुष्ट करने तथा विकृत अवस्था . में शरीर को दूषित करने का मूल बतलाया गया है ॥५॥
ऋग्वेद के "त्रिों आश्विनौ" इस मन्त्र के "त्रिधातु' पद का सायणाचार्य द्वारा किया गया वात पित्त-कफ रूप-अर्थ प्रदर्शित किया गया है ॥६॥
- १. सुबन्तौ। २. अथर्वस्थात् ।
नाडीतत्त्वदर्शने
Jauuessue 4M pouueos 'या वः शम्म'ति मन्त्रस्थ--'त्रिधातूनि' पदं स्मरन् । 'वात-पित्त-कफा येषु दयानन्दर्षिभाषितम् ॥७॥ पासीद् भारतकालेऽपि सर्वमान्यमतं त्वदः ।। शरीरस्य यथा राजन् ! वातपित्तकफैस्त्रिभिः ॥८॥ 'द्रप्सश्चस्कन्द --मन्त्रेण शरीरोत्पत्ति-वर्णनम् ।। 'द्वा.सुपर्णे'ति जीवस्य प्रवृत्तिमत्त्व-दर्शनम् ॥६॥ 'अयं मे हस्त' इत्यस्मात् स्पर्शज्ञानमुदाहृतम् । 'हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां मयं स्पर्श धरागते ॥१०॥ स्पर्शनाद् वेदनाज्ञानं त्रिदोषो देवताश्रितः ।। विश्वव्यापकता चास्य ब्राह्मणादिभिराहिता ॥११॥ त्रिदोषवेदमूलीयोऽध्यायः पूर्ति समन्वगात् ॥ पुनःशोधनमाश्रित्य स्थानेऽमृतसरोऽभिधे । वाणशून्याभ्रनेत्राब्दे श्रावणार्के दिगंशगे ॥
इति त्रिदोष-वेदमूलीय प्रथमोऽध्यायः ।
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"या वः शर्म" इस मन्त्र में पठित "त्रिधातूनि" पद का अर्थ ऋषि दयानन्द जी के मतानुसार वात, पित्त, कफ या लोहा, सोना, चांदी किया गया है--यह दिखलाया गया है ॥७॥
महाभारत के 'अभिमन्योः' इस श्लोक द्वारा तत्कालीन-चिकित्सापद्धति में वात, पित्त और कफ को चिकित्सा का मूल आधार बताया गया है ।।८॥
"द्रप्सश्चस्कन्द" इस मन्त्र के द्वारा शरीरोत्पत्ति का वर्णन तथा "द्वा सुपर्णा" इस मन्त्र के द्वारा जीव की प्रवृत्तिमत्ता प्रदर्शित की गयी है ॥६॥
. "अयं मे हस्त:" तथा "हस्ताभ्यां" इन दोनों मन्त्रों से नाडी-स्पर्श में विनियोग की व्यवस्था बतायी गयी है ॥१०॥
चरक के "स्पर्शनाद्वेदना" इस वचन से स्पर्शविज्ञान का समर्थन किया गया है । काश्यप संहिता के वचनानुसार वात, पित्त और कफ के दो-दो देवता तथा ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से उसका विश्वव्यापकता निर्दिष्ट की है। इस प्रकार आर्ष-आम्नायके द्वारा उक्त विषयों का प्रदर्शन किया गया है कि वैद्य की बुद्धि वैदिक-याम्नाय की अनुगामिनी होकर चतुर्वर्ग को प्राप्त कर सके ॥११॥
__ यह 'त्रिदोष-वेदमूलीय' नाम का प्रथम अध्याय' पूरा हुआ । सम्वत् २००५ (अगस्त १९४८) में अमृतसर में इस का पुन: संशोधन किया गया ।
वण
प्रथम अध्याय समाप्त ।
Gāyatrī-vidya
Purusa Akşi-vidyā
Antarāditya-vidya
Aditya-vidyā
Madhu-vidyā
Puruşa-vidyā
Prāņa- and Pratardana-vidyā-s
Prāņāgnihotra-vidyā
Udgītha-vidyā
Nāciketāgni-vidyā
Upakosala-vidyā
Satyakāma-vidyā
Vāiśvānara-vidyā
Pañcāgni-vidyā
Samvarga-vidyā
Akāśa-vidya
Gārgi-Aksara-vidyā
Bhrgu-Vāruņi-vidyā
Anandamaya-vidyā
Angușthamātra-vidyā
Sandilya-vidya
Dahara-vidyā Bālāki-vidyā
Uşasta-Kahola-vidyā
Uddālaka-Aruņi-vidyā
Maitreyi-vidyā
Parama-Puruşa-vidyā
Akşarāksara or Aksara-Parā-vidyā
Sad-vidyā Bhūma-vidyā
'Paryanka-vidyā
Jyotişāmjyotir-vidyā
Isa-vidyā
Sriman-Nyāsa-vidyā
गायत्री-विद्या
पुरुषाक्षि-विद्या
अन्तरादित्य-विद्या
आदित्य-विद्या
मधु-विद्या
पुरुषविद्या
प्रां- प्रतर्दनविद्या च
प्राँग्निहोत्रविद्या
उद्गीथविद्या
नाचिकेताग्निविद्या
उपकोसल-विद्या
सत्यकामा-विद्या
वैश्वानर-विद्या
पंचाग्निविद्या
संवर्गविद्या
आकाश-विद्या
गार्गी-अक्षर-विद्या
भृगु-वरुणी-विद्या
आनन्दमय-विद्या
अङ्गुșथमात्रविद्या
सन्दिल्य-विद्या
दहार-विद्या बालकी-विद्या
उशस्त-कहोला-विद्या
उद्दालक-अरुणी-विद्या
मैत्रेयी-विद्या
परम-पुरुष-विद्या
अक्षराक्षरं वा अक्षरपरविद्या
सद्विद्या
भूमविद्या
'पर्यङ्का-विद्या
ज्योतिशामज्योतिर्विद्या
इस-विद्या
श्रीमन्न्यासविद्या